नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति किस प्रकार हुई और कितने नाथ हए, इस विषय मेंं विद्ववजन भ्रमित हैं क्योंकि वे इस सम्प्रदाय को जैन और बौद्ध सम्प्रदाय का पश्चातवर्ती मानते हैं। जबकि पूर्ववर्ती अध्याय में यह निश्चित हो चुका है कि यह सम्प्रदाय आदिनाथ भगवान शंकर द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय है और सर्वप्रथम उनके नाम के साथ यह पद प्रयुक्त हुआ है। इस सम्प्रदाय को नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा से प्रसिद्ध होने से पूर्व इसे सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योगी सम्प्रदाय, अवधूत पंथ, अवधूत सम्प्रदाय, कापालिक आदि नामों से जाना जाता रहा है और आज भी ये नाम प्रचलन मेंं है। इनमेंं से कापालिक संज्ञा के स्थान पर कहीं-कहीं तांत्रिक पद का प्रयोग किया जाता हैं किन्तु इनमेंं सर्वाधिक प्रयोग होने वाले पद नाथ और योगी ही हैं। हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ मेंं नाथ सम्प्रदाय के अनेक सिद्ध योगियों के नाम दिये गये हैंं जिनके बारे मेंं विश्वास किया जाता है कि वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मेंं भ्रमणशील हैं।
नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है कि सर्वप्रथम नव नाथों की उत्पत्ति हुई है जिन्हेंं अयोनिज अर्थात जन्म की साधारण प्रक्रिया मैथुन और योनि से उत्पन्न नहींं होने वाला बताया गया है। महार्णव तन्त्र मेंं कहा गया है कि ये नवनाथ ही नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इस ग्रन्थ मेंं नवनाथों को अलग-अलग दिशाओं का अधिष्ठाता बताया गया है। इन नव नाथों की उत्पत्ति के बारे मेंं ‘योगिसम्प्रदायविष्कृति (योगाश्रम संस्कृत कालेज हरिद्वार के योगी चन्द्रनाथ द्वारा अनुवादित) मेंं बताया गया है कि नव नारायण ने ही नव नाथ के रूप मेंं अवतार लिया है। कथा के अनुसार सृष्टि रचना के पश्चात जीवों को नाश की ओर जाते देखकर सृष्टि ने जीवों को योगमार्ग का उपदेश देने के लियेे नव नाथो को आदेश दिया। इन नवनारायणों के नाम, उनके द्वारा लियेे गये अवतार और कौन किसका शिष्य बना यह निम्नांकित तालिका से प्रकट होता है।
क्र. सं. नवनारायण के नाम उनके द्वारा लिया गया अवतार उनके गुरु का नाम
1. कविनारायण मत्स्येन्द्रनाथ शिव
2. करभाजनारायण गहनिनाथ शिव
3. अन्तरिक्षनारायण जालन्धरनाथ शिव
4. हरिनारायण भृर्तहरिनाथ गोरक्षनाथ
5. आविर्होत्रनारायण नागनाथ गोरक्षनाथ
6. पिप्पलायननारायण चर्पटनाथ मत्स्येन्द्रनाथ
7. चमसनारायण रेवानाथ मत्स्येन्द्रनाथ
8. प्रबुद्धनारायण करणिपानाथ जालन्धरनाथ
9. द्रुमिलनारायण गोपीचन्द्रनाथ जालन्धरनाथ
ऊपरोक्त तालिका के अध्ययन से प्रकट होता है कि नवनारायणों द्वारा ही नाथ रूप मेंं अवतार लिया गया और इस प्रकार नवनारायण ही नवनाथ हुए। इस तालिका का आगे अर्थ यह हुआ कि शिव तथा गोरक्षनाथ नवनारायण से नवनाथ बनने वालों के गुरु तो हैं किन्तु वे न तो नवनारायणों मेंं है और न ही नवनाथों मेंं। यदि शिव तथा गोरक्षनाथ को इस सूची मेंं सम्मलित किया जावे तो नवनाथ के स्थान पर यह संज्ञा ‘एकादशनाथ होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि आदिनाथ शिव तथा योगी गोरक्षनाथ नवनाथोंं की उस श्रंखला मेंं शामिल नहींं हैं जो नवनारायण से नवनाथ बने हैं। इसका आगे अर्थ यह हुआ कि शिव और गोरक्षनाथ एक ही हैं और वे अपना मत नहींं बदलते अपितु आवश्यकता होने पर योग मार्ग के प्रचार हेतु अन्य दिव्यात्माओं को योगमार्ग मेंं दीक्षित कर उनका नेतृत्व करते हैंं। ।।जय शिव-गौरक्ष।। नवनाथों के नामों पर विचार करते हैंं तो ग्रन्थों और विद्वान नवनाथों के नाम पर एकमत नहींं पाते। तुलनात्मक व सुगम अध्ययन और सुविधा के दृषिटकोण से हम इसे दो भागों मेंं विभाजित कर लेते हैं। प्रथमत: अनावष्यक सूचि विंस्तार एवं आधुनिक विद्वानों के शोध के पुनरूद्धरण से बचने के लिये नाथ सम्प्रदाय से संबद्ध केवल कुछ प्राचीन और मान्य आधुनिक ग्रन्थों में दिये गये नवनाथों के नाम अगले पृष्ठ पर दी गयी तालिका में शामिल किये गये हैं, जिन्हें अध्ययन और सुविधा के द्रष्टिकोण से हमने सिद्ध नाथयोगियों को विभिन्न ग्रन्थों में उनकी उपस्थिति की आवृती द्वारा उनकी मान्यता को जांचने का प्रयास किया है। परिणाम निश्चय ही बहुत चौंकाने वाले हैं। यह स्थिति तो ग्रन्थों की एक लम्बी सूचि में से बहुत विचार विमर्श के पश्चात चयनित मात्र 9 ग्रन्थों के अध्ययन का परिणाम है।
हमें विश्वास था कि महार्णव-तन्त्र, योगिसम्प्रदायाविष्कृति, सुधाकर चन्द्रिका और गोरक्ष सिद्धान्त नामक ग्रन्थों में नवनाथों के नाम समान होंगें और आशंका थी कि सोमन्न रचित ‘नवनाथ चरित्र, कृष्णकुमार बाली रचित ‘भारत में नाथ सम्प्रदाय, डा० कृष्णलाल रचित ‘हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास मलिक मौहम्मद जायसी रचित ‘पदमावत और ढूंढीराज रचित ‘चिन्तामणी विजय में नवनाथों के नाम समान नहीं होगें। अगले पृष्ठ पर अंकित तालिका अविश्वसनीय रूप से आश्चर्य की सीमा तक अनेक विचारों को उद्वेलित करती है। सामर्थ्य होने और अवसर मिलने पर नाथ संप्रदाय से संबद्ध सभी ग्रन्थों में से नवनाथों की एक वृहद तालिका बनाने का विचार प्रस्फुटित होता है। देखना यह है कि अपने मत के समर्थन और अपने स्वामीगुरू को महिमामणिडत करने के लोभ में किसने किस महापुरूष का नाम नवनाथों में से हटा दिया और किसका नाम जोड दिया ? परंपरागत रूप से नाथयोगियों में निम्नांकित नवनाथ सूचियां प्रचलित हैं जो विभिन्न पंथों, स्थान और अन्य कारणों से पृथक पृथक जान पडती है किन्तु कुछ मूलभूत नाम सभी सूचियों में समान रूप से पाये जाते हैं।
नवनाथ तालिका क्र. सं. ग्रन्थ का नाम लेखक नवनाथों के नाम
1 महार्णव तंत्र अभिनव गुप्त गोरक्षनाथ1, जालन्धरनाथ1, नागार्जुन1, सहस्रार्जुन1, दत्तात्रेय1, देवदत्त1, जड़भरत1, आदिनाथ1 और मत्स्येन्द्रनाथ1 2 योगी सम्प्रदाय विष्कृति योगी चन्द्रनाथ मत्स्येन्द्रनाथ2, गाहनिनाथ1, जालन्धरनाथ2, भृर्तहरिनाथ1, नागनाथ2, चर्पटनाथ1, रेवडनाथ1, करणिपानाथ1, गोपीचन्द्रनाथ1 3 सुधाकर चनिद्रका सुधाकर एकनाथ1, आदिनाथ2, मत्स्येन्द्रनाथ3, उदयनाथ1, दण्डनाथ1, सत्यनाथ1, सन्तोषनाथ1, कूर्मनाथ1, और जालन्धरनाथ3 4 नवनाथ चरित्र (तेलगू) सोमन्न मीननाथ4, सारंगनाथ (चौरंगीनाथ)1, गोरक्षनाथ2, मेघनाथ1, विरूपाक्ष1, नागार्जन3, खणिक1, व्यालि1 और तोरक्कुनाथ1 5 नवनाथ चरित आदिनाथ3, उदयनाथ2, सत्यनाथ2, सन्तोषनाथ2, अचम्भनाथ1, गजकंथडनाथ1, चौरंगीनाथ2, मत्स्येन्द्रनाथ5, और गोरक्षनाथ3 6 भारत मेंं नाथ सम्प्रदाय कृष्णकुमार बाली आदिनाथ4, उदयनाथ3, सत्यनाथ3, सन्तोषनाथ3, अचम्भनाथ2, गजकंथडनाथ2, चौरंगीनाथ3, मत्स्येन्द्रनाथ6, और गोरक्षनाथ4 7 हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास डा0 कृष्णलाल हंस आदिनाथ5, मत्स्येन्द्रनाथ7, गोरक्षनाथ5, गैनीनाथ2, चर्पटनाथ2, चौरंगीनाथ4, ज्वालेन्द्रनाथ4, भर्तृहरीनाथ2 और गोपीचन्द्रनाथ2 8 पदमावत मलिक मौहम्मद जायसी आदिनाथ6, मत्स्येन्द्रनाथ8, गोरक्षनाथ6, गहिनीनाथ3, चर्पटनाथ3, चौरंगीनाथ5, ज्वालेन्द्रनाथ5, भतर्ृहरिनाथ3 और गोपीचन्द्रनाथ3 9 चिन्तामणि विजय ढूंढीराज मत्स्येन्द्रनाथ9, गोरक्षनाथ7, जालन्धरनाथ5, कानिफानाथ2, चर्पटनाथ4, नागनाथ4, भतर्ृहरिनाथ4, रेवणनाथ2 और गहनीनाथ4 10 गोरक्ष सिद्धान्त संगृह आदिनाथ7, मत्स्येन्द्रनाथ10, उदयनाथ4, दण्डनाथ2 सत्यनाथ4, सन्तोषनाथ4, कूर्मनाथ2, भवनाथ1 और गोरक्षनाथ8 11 नवनाथ नाम कविता आदिनाथ8, उदयनाथ5, सत्यनाथ5, सन्तोषनाथ5, अचलअचंभनाथ3, गजबेली कन्थडनाथ3, ज्ञानपारखी चौरंगीनाथ6, मत्स्येन्द्रनाथ11 और गोरक्षनाथ9 12 नवनाथ स्मरण आदिनाथ9, उदयनाथ6, सत्यनाथ6, सन्तोषनाथ6, कन्थडनाथ4, मत्स्येन्द्रनाथ12, चौरंगीनाथ7, अचंभनाथ4, गोरक्षनाथ10, 13 नवनाथ कथा आदिनाथ,, उदयनाथ7, सत्यनाथ7, सन्तोषनाथ7, अचलनाथ5, कन्थडनाथ5, चौरंगीनाथ8, मत्स्येन्द्रनाथ13, गोरक्षनाथ11 14 नवनाथ स्तुति आदिनाथ10, उदयनाथ8, सत्यनाथ8, सन्तोषनाथ8, कन्थडीनााथ6, अन्चेतीअचंभनाथ6, चौरंगीनाथ9, मत्स्येन्द्रनाथ14, गोरक्षनाथ12 15 जी.डब्ल्यू. बिरग्स आदिनाथ11, शैलनाथ1, सन्तोषनाथ9, अचल अचंभनाथ7, गजबली गजकन्थानाथ7, प्रजानाथ1 अथवा उदयनाथ9, मत्स्येन्द्रनाथ15, गोरक्षनाथ13, चौरंगीनाथ10 16 गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह आदिनाथ12, मत्स्येन्द्रनाथ16, उदयनाथ10, दण्डानाथ, सत्यनाथ9, सन्तोषनाथ10, कूर्मनाथ3, भवनारनाथ, गोरक्षनाथ14 17 स्कन्द पुराण आदिनाथ13, भवनाथ1, सत्यनाथ10, सन्तोषनाथ11, मत्स्येन्द्रनाथ17, कूर्मनाथ4, गोपीनाथ, गोरक्षनाथ15, (अज्ञात) 18 श्री नवनाथ भकितसार कवि श्री मालू (महाराष्ट्र) मत्स्येन्द्रनाथ18, गोरक्षनाथ16, जालन्धरनाथ6, कनिफानाथ3, चर्पटनाथ5, नागेषनाथ5, भरतनाथ, रेवणनाथ3, गहिनीनाथ5 19 भारद्वाज संहिता आदिनाथ14, कण्डलनाथ1, चौरंगीनाथ11, गोरक्षनाथ17, रावलनाथ, अनंगनाथ, जालन्धरनाथ7, भुजंगनाथ6, अरूणाचलनाथ1
ऊपरोक्त तालिका के अध्ययन से प्रकट होता है कि नवनाथों के नाम पर ग्रन्थ और ग्रन्थकार एकमत नहींं हैं। विशेषत: छंटनी किये गये इन ग्रन्थों में यदि सभी नामों को नवनाथों में शामिल किया जावे तो नवनाथों की संख्या 36 से भी अधिक हो जाती है। अपवाद को छोडकर केवल मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का नाम लगभग सभी ग्रन्थों में समान रूप से नवनाथों में शामिल है जिसमें मत्स्येन्द्रनाथ को कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मछीन्द्रनाथ नाम से उल्लिखित है। इसी प्रकार गोरक्षनाथ को भी कहीं कहीं एकनाथ नाम से सम्बोधित किया गया है। उपलब्ध 19 सूचियों में इन महापुरूषों के नाम की आवृति के आधार पर देखा जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ व गोरक्षनाथ का नाम 18, चौरंगीनाथ का नाम (कूर्मनाथ को चौरंगीनाथ मान लेने पर) 15, आदिनाथ का नाम 14, सन्तोषनाथ का नाम 11, उदयनाथ व सत्यनाथ का नाम 10, अचंभनाथ, कन्थडनाथ व जालन्धरनाथ का नाम 7, नागार्जुन (नाग, नागेष, भुजंगनाथ को एक माना जाकर) का नाम 6, चर्पटनाथ तथा गाहनीनाथ (गैनी, गहिनी को शामिल कर) का नाम 5, भर्तहरि व गोपीचन्द्रनाथ का नाम 4, रेवानाथ, कनिफानाथ और दण्डनाथ का नाम 3 सूचियों द्वारा समर्थित हैं। शेष नामों की आवृति केवल एक-एक सूचि में है। यह अपेक्षा की जाती है कि नाथ सम्प्रदाय के चार प्रमुख नाथजी क्रमश: आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ जालन्धरनाथ और गोरक्षनाथ का नाम तो नवनाथों की सभी सूचियों मेंं अवश्य है किन्तु ‘योगी सम्प्रदाय विष्कृति और ‘सुधाकर चनिद्रका ग्रन्थों मेंं गोरक्षनाथ को नवनाथों मेंं सम्मलित नहींं किया गया। ‘नवनाथ चरित्र, ‘भारत मेंं नाथ सम्प्रदाय और ‘गोरक्ष सिद्धान्त संगृह मेंं जालन्धरनाथ को नवनाथों मेंं सम्मलित नहींं किया गया। ‘योगीसम्प्रदाय विष्कृति, ‘नवनाथ चरित्र तथा ‘चिन्तामणि विजय मेंं आदिनाथ को नवनाथों मेंं समिमलित नहींं किया गया। केवल मत्स्येन्द्रनाथ का नाम सभी ग्रन्थों मेंं समान रूप से नवनाथों मेंं शामिल है, जो कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मत्स्येन्द्रनाथ नाम से उलिलखित है। गहनीनाथ व गैनीनाथ और जालन्धर व ज्वालेन्द्रनाथ, नागार्जुन व नागनाथ, रेवानाथ व रेवणनाथ, करणिपानाथ व कानिपानाथ को हमने एक ही मान लिया है।
द्वितीयत: नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों मेंं प्रचलित मौखिक परम्पराओं पर दृषिटपात करें तो उनमेंं भी नवनाथों के नामों पर मतैक्य नहींं मिलता। मौखिक परम्परा के सन्दर्भ मेंं ‘नवनाथ जाप नाम से एक स्तुति मेंं आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, कंथड़नाथ, अचम्भेनाथ, चौरंगीनाथ, मछन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ के नाम हैं, किन्तु इससे मिलती जुलती संज्ञा वाले नवनाथ रक्षा जाप मंत्र मेंं बालगुन्दार्इ (सम्भवत: गुसार्इं), धूंधलीमल और एक अन्य मौखिक परम्परा मेंं खरमचलनाथ ऐसे नाम हैं जो न तो किसी ग्रन्थ मेंं बताये गये और न ही नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा अनुमोदित है। अलग-अलग स्थानों पर भाषा के उच्चारण और परम्परा के कारण इन नवनाथों के नामों की वर्तनी मेंं किंचित भेद को स्वाभाविक और सामान्य बात मानकर छोड़़ दें तो इतना तो माना जा सकता है कि, उदयनाथ को उदेनाथ, सत्यनाथ को सतनाथ, अचल अचम्भनाथ को आंचोली अंचेपानाथ, मत्स्येन्द्र को मछन्दर और गजबेली गजकन्थड़नाथ को घोडाचोली कन्थड़ीनाथ उच्चरित किया गया है। नाथ सम्प्रदाय से इतर विद्ववजनों और मौखिक परम्पराओं के अतिरिक्त नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं भी नवनाथों की सूची का अनुमान मिलता है। इस क्रम मेंं विटठल योगीष्वर मठ कर्णाटक के महन्त राजा पीर योगी चन्द्रनाथ ने ”पीर द्वारकानाथ वाणी तथा ”जोगमाया जाप संगृह नामक ग्रन्थों मेंं नवनाथ मंत्र जाप और नवनाथ भजन लिखा है। मृगस्थली काठमाण्डू के पीठाधीष्वर व नेपाल के राजगुरू विद्वान योगी प्रवर नरहरिनाथ ने ”नाथ नित्यकर्म, ” नवनाथ स्वरूप वर्णन तथा ”नवनाथ चरित्र मेंं नवनाथों के नाम उलिलखित किये हैं जिनकी अवधूत योगी महासभा दलीचा भेख (भेष) बारह पंथ हरिद्वार द्वारा पुष्टि की गयी है। इसी प्रकार नवनाथों के नामक्रम मेंं सभी संशयों का विच्छेदन करते हुए नाथ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ ‘गोरक्ष टिल्ला काशी वाराणसी से प्रकाषित ‘नवनाथ कथा नामक ग्रन्थ मेंं भी नवनाथों के वे ही नाम हैं जो उक्त दोनों महानुभावों द्वारा अपने ग्रन्थों मेंं बताये गये हैंं। यहां यह उल्लेखनीय है कि नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा नवनाथों की नामावली उनके द्वारा की जाने वाली नवनाथों की वन्दनास्तुति पर आधारित होने से अधिक विश्वसनीय होने का प्रबल आधार है। नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं नवनाथ नामावली को साररूप मेंं प्रस्तुत किया जावे तो वन्दना क्रम से जो समान नाम प्रकट होते हैंं वे इस प्रकार है..आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचल अचम्भनाथ, गजकन्थड़नाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और शम्भुजति गुरु गोरक्षनाथ। नवनाथों की नामावली की चर्चा अधूरी होगी यदि हम श्रीलंका की नाथ परंपरा में नवनाथों की चर्चा नहीं करें तो। श्रीलंका की परंपरा के अनुसार श्रीलंका में अवलोकितेश्वर से संबंद्ध नवनाथों की परंपरा का अस्तित्व है जो नाथ नाम से जानी जाती है।
श्रीलंका में 9वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य लिखी गयी की संस्कृत कृति सरीपुत्र में नाथ को वर्णित किया गया है जिसके आधार पर श्रीलंका के चितेरों ने 15वीं शताब्दी में अवलोकितेश्वर को चित्रित किया है। (हम यहां स्पष्ट कर दें कि सरिपुत्र नामक एक ब्राहमण महात्त्मा बुद्ध का एक प्रमुख शिष्य भी था जिसका नालन्दा में स्तूप है। प्रस्तुत पंक्तियां केलानिया युनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट आफ एस्थेटिक स्टडीज के निदेषक डा. आर.एम. शरत चन्द्रजीवा और इन्दिरागांधी नेशनल सेंटर फार दी आर्टस की शोधकर्ता डा. राधा बनर्जी के शोध पत्रों पर आधारित है)। नवनाथों की अन्य समस्त सूचियों की भांति ही सरिपुत्र में भी नवनाथों की सूचि उनके स्वरूप वर्णन से युक्त है हम यहां केवल उनके नाम का उल्लेख कर रहे हैं। तदानुसार शिवनाथ, ब्रहमनाथ, विष्णुनाथ, गौरीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भद्रनाथ, बुद्धनाथ और गणनाथ हैं। ज्ञातव्य है कि सरिपुत्र की इस सूचि में केवल आठ ही नाम हैं और गोरक्षनाथ का नाम नहीं है। सूचि में उक्त आठ नामों के तुरन्त बाद अवलोकितेश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्रीलंका में उसकी प्रतिमाओं और चित्रों का विवेचन किया गया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अवलोकितेश्वर को नवनाथों में सम्मलित करते हुए उसको बौद्ध और नाथ के मध्य सन्तुलित कर दिया है। अपने शोधपत्र में एक स्थान पर अवलोकितेश्वर के साथ नाथ पद का प्रयोग करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि ”श्रीलंका में विभिन्न दूरस्थ स्थानों पर अवलोकितेश्वरनाथ की प्रतिमाएं प्राप्त हुर्इ हैं। अब अवलोकितेश्वर का 84 की संख्यां के साथ विलक्षण संगम देखिये कि अवलोकितेश्ववर के भुमध्य से 84 किरणें निकल रही है और प्रत्येक किरण बुद्ध और बोधिसत्वों की इस विशाल संख्या का प्रतिनिधित्व कर रही है। अवलोकितेश्वर की प्रत्येक अंगुली के पौरों में 84000 (चौरासी हजार) तस्वीरें हैं और तस्वीर से निकलने वाली किरण जगत के सभी तत्वों को प्रकाशित कर रही है। यह सुनिश्चित है कि श्रीलंका में ‘नाथ परंपरा को दक्षिण भारत की ‘अगम नामक शैव परंपरा ने स्थापित किया है। श्रीलंका की परंपरा अनुसार नवनाथ सूचि की पहली और रूचिकर विशेषता यह है कि नवनाथों के संबंध में यह प्राचीनतम अभिलेख है जो समय के साथ आज हम तक पहुंची है। दूसरे इस सूचि का परीक्षण किये जाने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि यह भारतीय नाथ परंपरा से संबद्ध है ना कि बौद्ध संप्रदाय के विख्यात एवं प्रतिष्ठित समूह जिससे कि अवलोकितेश्वर के रूप में मत्स्येन्द्रनाथ को जोडा जाता है। विस्मय यहां समाप्त नहीं होता वरन श्रीलंका की नाथ परंपरा अनुसार अवलोकितेष्वर को महायोगी गोरक्षनाथ से संबद्ध होना बताया गया है जो कि नेपाल की नाथ परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ को अवलोकितेष्वर बताया जाता है। श्रीलंका की केलानिया यूनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट आफ ऐस्थेटिक स्टडीज के निदेषक डा0 आर.एम. सरथ चन्द्रजीवा के अनुसार अवलोकितेष्वर नाम प्रारंभिक बौद्ध ग्रन्थों यथा प्रथम शताब्दी के उत्तर भारत के प्रसिद्ध दार्षनिक अश्वघोष (80-150 र्इ0) जो बाद में बौद्ध भिक्षु बना के ग्रंथ ललितविस्तार, दिव्य वन्दना और जातक माला आदि में प्रकट नहीं होता।
द्वितीय शताब्दी में संस्कृत से चीनी और जापानी तथा आधुनिक काल में विद्वान मेक्समुलर द्वारा अनुवादित सुखवतीव्यूह ग्रंथ में बोधिसत्व अवलोकितेष्वर को बुद्ध का पुत्र होना बताया गया है और चौथी से सातवीं शताब्दी के मध्य लिखित गुण-करन्दव्यूह सूत्र, अमितयुध्र्यन सूत्र तथा सधर्म पुण्डरीक सूत्र में अवलोकितेष्वर को अदभुत शक्तियों का स्वामी बताया जाकर गुणगान किया गया है। श्रीलंका मेें अवलोकितेष्वर का प्राकटय 8वीं शताब्दी के शिलालेख में होता है जो अवलोकितेष्वर के संबंध में आरंभिक और प्राचीन है। शिलालेख में अवलोकितेश्वर, बुद्ध और मंजूश्री को त्रिमूर्ति कहा गया है। विचारणीय प्रश्न यह है कि नवनाथों की इतनी संक्षिप्त सूची के संबन्ध मेंं इतने मत मतान्तर क्यों हैं ? उत्तर इतना सहज नहींं है किन्तु इस ग्रन्थ की प्रस्तावना मेंं उल्लिखित प्रथत वाक्यांश (विश्व मेंं मानव समाज अपनी इकाइयों के प्रत्येक स्तर पर अपने दर्शन, संस्कृति साहित्य और इतिहास को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास मेंं लगा रहता है) के प्रकाश मेंं विचार करें तो- 1. सर्वप्रथम यह अवधारणा सत्य ही सिद्ध होती है कि समय समय पर अलग-अलग स्थानों पर उत्साहित और समर्पित शिष्यों ने अपनी सुविधा अनुसार नवनाथों मेंं से किसी एक के नाम के स्थान पर अपने गुरू का नाम प्रतिस्थापित कर दिया। 2. द्वितीयत: यह एक सुस्थापित तथ्य है कि इस सम्प्रदाय मेंं यदपि सभी वर्ण एवं वगोर्ं के लोग अनुयायी हुए है किन्तु इनमेंं क्षत्रिय कही जाने वाली जातियों और राजा महाराजाओं का प्रतिशत सर्वाधिक है। यहां यह स्पष्ट करना समचीन होगा कि अन्य सम्प्रदायों से इतर नाथ सम्प्रदाय ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो राज्याश्रय के कारण पल्लवित और पोषित नहींं हुआ वरन राजा महाराजाओं ने इस सम्प्रदाय का आश्रय लिया। जहां कहीं राजा, महाराजा व सम्पन्न व्यक्तियों ने नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा ली उन्होंने अथवा उनके समीपस्थ सहायकों ने स्थान विशेष की परम्परानुसार नवनाथों के नामों का चित्रण, मुद्रण एवं ग्रन्थ रचनायें करवा दी जो आज नवनाथों के नामों के संबन्ध मेंं मतभिन्नता का कारण बनी हुयी हैं। 3. तीसरा अनुमान यह है कि, नाथ सम्प्रदाय की मान्यता अनुसार स्वयं योगी गोरक्षनाथ ने शास्त्रों के पठन-पाठन को महत्त्वहीन मानते हुए कहा है ”मैंं कहता हूं कि यदि वे मेरा उपदेश मानें तो सभी ग्रन्थों को कुएं मेंं फेंक देें क्योंकि आधुनिक समय मेंं जो स्वयं ही पूर्ण नहींं हैं वे दूसरों को मोक्ष का उपदेश देने मेंं किस तरह समर्थ हो सकते हैं? ये निपुणता प्रदर्शन, अभिमान, जीविकोपार्जन, व्यसन अथवा किसी भी अभिलाषा की पूर्ति के लियेे शास्त्र रचना करते हैंं। वह रचनायें पारमार्थिक पुरुषों के समक्ष क्या महत्त्व रखती है? ग्रन्थों की ग्रन्थी को काटने के लिये इस प्रकार का उधोग करने और उपदेश देने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकले शब्दों को महायोगी गोरक्षनाथ के शब्दों के पासंग में रखकर देखें तो श्रीकृष्ण भी यही तो कह रहे हैं।
यामिमां पुषिपतां वाचं प्रवदन्त्यविपषिचत:। वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।।
कामात्मन: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम। कि्रयाविषेषबहुलां भोगैष्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैष्वर्यप्रसक्तानां तयापहतचेतसाम। व्यवसायातिमका बुद्धि: समार्धा न विधीयते।।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवाजर्ुन। निन्द्र्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राहमणस्य विजानत:।। (अध्याय 2, श्लोक 42-46)
अर्थात अल्पबुद्धि मनुष्य वेदों के उन आलंकारिक वचनों में बहुत आसक्त रहते हैं जिनमें स्वर्ग, उच्चकुल, ऐश्वर्य और भोगों को देने वाले सकामकमोर का विधान है। भोग और ऐश्वर्य की अभिलाषा के कारण ही वे ऐसा कहते है कि इनसे (वेद, ग्रन्थ आदि) श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। जो मनुष्य विषयभोग और लोकिक ऐश्वर्य में प्रगाढ़ आसकित के कारण इस प्रकार सम्मोहित हो रहे हैं उनके चित्त में मन की एकाग्रता का दृढ़ निश्चचय नहीं होता। वेद तो मुख्यत: (केवल) प्रकृति के तीन गुणों का विषय (वर्णन) करने वाले हैं। हे अर्जुन तू इन गुणों का उल्लंघन कर के इनसे अतीत हो जा और सम्पूर्ण द्वन्द्वों तथा प्रापित व सरंक्षण के विचार से मुक्त होकर अपने आप में स्थित हो जा। इसी आधार पर अधिकांश गुरूओं ने भी शास्त्रों को महत्व नहीं दिया और केवल गुरू के सानिध्य मेंं रहकर मौखिक ज्ञान की शिष्य परम्परा से ही योग साधना पल्लवित होती रही है। स्मृतियों और श्रुतियों के सन्दर्भ मेंं यह कोर्इ नयी बात भी नहींं है। देश, काल और परिस्थितियों के कारण जो परिणाम स्मृतियों और श्रुतियों का हुआ वही परिणाम नवनाथ नामावली मेंं भी अनपेक्षित नहींं है। 4. एक अन्य अनुमान के अनुसार जैसा कि विदित है कि नाथ सम्प्रदाय मेंं बारह और अटठारह पंथों मेंं से योगी गोरक्षनाथ द्वारा बारह पंथों का पुनर्गठन किया गया किन्तु उनके पश्चात इन बारह पंथों के अनेक उपपंथ और उपपंथों की अनेक शाखा-उपशाखाएं विकसित होती रहीं। गुरू को सर्वोच्च सम्मान देने की मानसिकता के कारण अनुयायियों द्वारा अपने पंथ के प्रवर्तक का नाम नवनाथों की नामावली मेंं रखकर उनकी वन्दना करने की प्रबल सम्भावना इस अनुमान को और भी पुष्ट कर देती है। समय व्यतीत होने के साथ-साथ यह एक परम्परा बन गयी और इस प्रकार विभिन्न नवनाथ नामावलियों का अस्तित्त्व होना कोर्इ आश्चर्य की बात नहींं है।
सारांश यह है कि एक अन्तहीन बहस और सभी तर्क विर्तको को विराम देने के लियेे हमेंं एक सर्वमान्य मापदण्ड का आश्रय लेना होगा। नाथ सम्प्रदाय के बाहय और लिखित परम्पराओं तक सीमित रहने वाले इतिहासज्ञों और साहित्यकारों द्वारा किया गया शोध एवं समीक्षा यधपि बहुत महत्त्वपूर्ण है किन्तु उन्हें मान्यता नहींं दिये जाने के कारणों का उल्लेख हम प्रस्तावना मेंं कर चुके हैं। इन महानुभावों के मत को नाथ सम्प्रदाय के बाहर तो कमोबेश मान्यता मिल सकती है किन्तु इतनी कुशलतापूर्वक किये गये प्रदर्शन को भी नाथ सम्प्रदाय के सिद्धमहापुरुषो सन्त व अनुयायियों द्वारा स्वीकार कर अपनी सनातन परम्परा और संगत मे एक व सर्वलोकमान्य करना है। आदेश।। आदेश।। जय महाकाल।। जय शिव गौरक्ष।।) .