नाथ समाज का इतिहास

नाथ समाज का इतिहास -गोरख नाथ मंदिर द्वारा प्रकाशित।

हिन्दू-धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान है। भारतवर्ष का कोई प्रदेश, अंचल या जनपद नहीं है जिसे नाथसम्प्रदाय के सिद्धों या योगियों ने अपनी चरण रज से साधना और तत्वज्ञान की महिमा से पवित्र न किया हो। देश के कोने-कोने में स्थित नाथ सम्प्रदाय के तीर्थ-स्थल, मन्दिर, मठ, आश्रम, दलीचा, खोह, गुफा और टिल्ले इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि नाथ सम्प्रदाय भारतवर्ष का एक अत्यन्त गौरवशाली प्रभविष्णु, क्रान्तिकारी तथा महलों से कुटियों तक फैला सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला लोकप्रिय प्रमुख पंथ रहा है।

नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। लोक कल्याण के लिए नव नारायणों ने नवनाथों, कविनारायण ने श्री मत्स्येन्द्रनाथ, करभाजननारायण ने गहनिनाथ, अन्तरिक्षनारायण ने जालन्धरनाथ, प्रबुद्धनारायण ने कानीफरनाथ, अविहोर्त्रनारायण ने नागनाथ, पिप्पलायननारायण ने चर्पटनाथ, चमसनारायण ने रेवणनाथ, हरिनारायण ने भर्तृहरिनाथ तथा द्रमिलनारायण ने गोपीचन्द्र नाथ के नाम से इसे समय-समय पर धराधाम पर फैलाया। आदिनाथ शिव से जो तत्वज्ञान श्री मत्स्येन्द्रनाथ ने प्राप्त किया था उसे ही शिष्य बनकर शिवावतार गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया तथा नाथपंथ और साधना के प्रतिष्ठापक परमाचार्य के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की। महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने यही कहा है:

अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत। योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम् ।।

अर्थात् मैं ही गोरक्ष हूँ। उन्हें मेरा ही रूप जानो। योग मार्ग के प्रचार के लिए मैंने ही यह रूप धारण किया है। इस प्रकार श्री गोरक्षनाथ स्वयं सच्चिदानन्द शिव के साक्षात्स्वरूप हैं और जैसा कि पाश्चात्यविद्वान जार्ज ग्रियर्सन ने भी कहा है, ‘‘उन्होंने लोकजीवन का पारमार्थिक स्तर उत्तरोत्तर उन्नत और समृद्ध कर, निष्पक्ष आध्यात्मिक क्रान्ति का बीजारोपण कर योगकल्पतरु की शीतल छाया में त्रयताप से पीड़ित मानवता को सुरक्षित कर जो महनीयता प्राप्त की वह उनकी महती अलौकिक सिद्धि की परिचायिका है।’’ उन्हें चारों युगों में विद्यमान एक अयोनिज, अमरकाय सिद्ध महापुरुष माना जाता है जिसने एशिया के विशाल भूखण्ड तिब्बत, मंगोलिया, कान्धार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा सम्पूर्ण भारतवर्श को अपने योग महाज्ञान से कृतार्थ किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरखनाथ जी सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर (उ.प्र.) में, द्वापरयुग में हरमुज (द्वारिका से भी आगे) में तथा कलियुग में गोरखमढ़ी (सौराष्ट्र) में आविर्भूत हुए थे। बंगाल में यह विश्वास किया जाता है कि गोरखनाथ जी उसी प्रदेश में पैदा हुए थे। परम्परा के अनुसार जिसका ब्रिग्स ने उल्लेख किया है जब श्रीविष्णु कमल से प्रकट हुए उस समय गोरखनाथ जी पाताल में तपस्या कर रहे थे। उन्होंने सृष्टिकार्य में श्रीविष्णु की सहायता भी की थी। जोधपुर नरेश महाराज मानसिंह द्वारा विरचित ‘श्रीनाथतीर्थावली’ के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बन्धन श्री गोरक्षनाथ जी की कृपा से ही हुआ था।

योगी-सम्प्रदाय और उसका आदर्श 
गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित योगी-सम्प्रदाय सामान्यतः ‘नाथ-योगी’, ‘सिद्ध-योगी’, ‘दरसनी योगी’ या ‘कनफटा योगी’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी नाम साभिप्राय हैं। योगी का लक्ष्य नाथ अर्थात् स्वामी होना है। प्रकृति के ऊपर पूर्ण स्वामित्व स्थापित करने के लिये योगी को अनिवार्यतः नैतिक, शारीरिक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक अनुशासन की क्रमिक विधि का पालन करना पड़ता है। प्रकृति के ऊपर स्थापित स्वामित्व चेतना एवं पदार्थ दोनों दृष्टियों से होना चाहिये, अर्थात् उसे अपने विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और क्रियाओं, बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर तथा स्थान और समय, गरिमा और गुरुत्व, प्राकृतिक नियमों एवं भौतिक तत्त्वों आदि सभी पर नियंत्रण करना चाहिये। उसे निश्चित रूप से सिद्धि या आत्मोपलब्धि करनी चाहिये और सभी आन्तरिक सुन्दरताओं का व्यावहारिक रूप से अनुभव करना चाहिए। उसे निश्चय ही सभी प्रकार के बन्धनों, दुःखों और सीमाओं से ऊपर उठना चाहिये।

उसे शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। उसे मृत्युंजयी होना चाहिये। उसे वास्तविक दृष्टि (दर्शन) अर्थात् परमतत्त्व की मूलभूत विशिष्टताओं को समझने के लिये अन्तर्दृष्टि की उपलब्धि होनी चाहिये। उसे अज्ञान के परदे को फाड़कर निरपेक्ष सत्य की अनुभूति करनी चाहिये और उसके साथ तादात्म्य स्थापित योगियों को विभिन्न संज्ञाएँ सम्भवतः इसलिये दी गई हैं कि जिस उच्चतम आध्यात्मिक आदर्श की अनुभूति के लिये उन्होंने योग-सम्प्रदाय में प्रवेश किया है, उसकी स्मृति अनंत रूप से बनी रहे। वे किसी भी निम्न कोटि की सिद्धि, गुह्यशक्ति या दृष्टि से ही सन्तुष्ट न हों, न उसे अपनी साधना का लक्ष्य बनावें। वे चमत्कारों की ओर प्रवृत्त न हों, क्यों कि सच्चे योगी के लिये ये सर्वथा तुच्छ हैं। अपनी साधना के बीच में इस प्रकार की जो शक्ति ये प्राप्त करते हैं, वह उच्च से उच्चतर स्थितियों की उपलब्धि में आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति में, परमज्ञान और परममुक्ति, परमानन्द और परमशान्ति तथा मुक्ति या कैवल्य की अनुभूति में प्रयुक्त होनी चाहिये। यह भौतिक शरीर भी आध्यात्मिक स्पर्श के द्वारा समय और स्थान की सीमाओं से परे दिव्य बना दिया जाता है, जिसे आध्यात्मिक शब्दावली में काया-सिद्धि कहते हैं। जो योगी आत्मानुभूति की उच्चतम स्थिति तक पहुँच जाता है, सामान्यतः अवधूत कहलाता है। अवधूत से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जो प्रकृति के सभी विकारों का अतिक्रमण कर जाता है, जो प्रकृति की शक्तियों और नियमों से परे है, जिसका व्यक्तित्व मलिनताओं, सीमाओं, परिवर्तनों तथा इस भौतिक जगत् के दुःखों और बन्धनों के स्पर्श से परे हो जाता है। वह जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय और राष्ट्र के भेदों से ऊपर उठ जाता है। वह किसी भी प्रकार के भय, चाह या बन्धन के बिना पूर्ण आनन्द और स्वच्छन्दता की स्थिति में विचरण करता है। उसकी आत्मा परमात्मा या भगवान शिव, विश्व के स्रष्टा, शासक और हर्ता के साथ एकाकार हो जाती है। इस सम्प्रदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में ऐसे अनेक योगियों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें आध्यात्मिक साधना की यह भूमि प्राप्त हुई थी, जिन्होंने इस जगत् के प्राणियों के सम्मुख मानव, अस्तित्व की दैवी सम्भावनाओं का प्रदर्शन किया था। इस प्रकार का अवधूत ही सच्चे अर्थों में नाथ, सिद्ध या दर्शनी है; जब कि अन्य योगी इस स्थिति की कामना करने वाले मात्र हैं।

योगी-सम्प्रदाय के विशेष चिह्न और उनका तात्पर्य 
इस सम्प्रदाय के योगी कुछ निश्चित प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, जो केवल व्यवहारगत् साम्प्रदायिक चिह्न न होकर आध्यात्मिक अर्थ भी रखते हैं। नाथ-योगी का एक प्रकट चिह्न उसके फटे हुये कान तथा उसमें पहने जाने वाले कुण्डल हैं। इस सम्प्रदाय का प्रत्येक व्यक्ति संस्कार की तीन स्थितियों से गुजरता है। तीसरी या अन्तिम स्थिति में गुरु उसके दोनों कानों के मध्यवर्ती कोमल भागों को फाड़ देता है और जब घाव भर जाता है तो उनमें दो बड़े छल्ले पहना दिये जाते हैं। यही कारण है कि इस सम्प्रदाय के योगी को सामान्यतः कनफटा योगी कहते हैं। संस्कार का यह अन्तिम रूप योगी शिष्य की सच्चाई और निष्ठा की परीक्षा प्रतीत होता है, जो इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि शिष्य अति पवित्र जीवन व्यतीत करने तथा रहस्यमय योग-साधना में पूरा समय और शक्ति देने को प्रस्तुत है। योगी के द्वारा पहना जाने वाला छल्ला ‘मुद्रा’, ‘दरसन’, ‘कुण्डल’ आदि नामों से प्रसिद्ध है। यह गुरु के प्रति शिष्य के शरीर के पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक है। इस प्रकार का आत्मसमर्पण ही शिष्य के शरीर और मनको पूर्णतः शुद्ध कर देता है। उसे समस्त अहमन्यताओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त करके इतना स्वच्छ कर देता है कि वह ब्रह्म, शिव या परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभति कर सके। आध्यात्मिक ज्योति को प्रकाशित करने वाले तथा योगियों के जीवन के आदर्श स्वरूप गुरु के प्रति इस प्रकार के पूर्ण आत्मसमर्पण का तात्पर्य शिष्य के चिन्तन की स्वच्छन्दता में बाधा पहुँचाना नहीं होता वरन् इस स्वच्छन्दता की पूर्ति करना और उसे विकसित करना होता है। अवधूत (गुरु) की पूर्ण मुक्त आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करके अहंकारमयी प्रवृत्तियों और इच्छाओं के बन्धन से उसकी आत्मा को मुक्ति प्राप्त होती है। गोरखनाथ के उन अनुयायियों को, जिन्होंने सभी सांसारिक सम्बन्धों को त्याग दिया है और योगी-सम्प्रदाय में प्रविष्ट हो गये हैं किन्तु जिन्होंने अन्तिम दीक्षा-संस्कार के रूप में कान नहीं फड़वाया है, सामान्यतः औघड़ कहते हैं। इनकी स्थिति बीच की है। एक ओर तो सामान्य शिष्य हैं जो अभी योगी सम्प्रदाय के बाहर हैं और दूसरी और दरसनी योगी हैं, जिन्होंने सांसारिक जीवन को पूर्णतः त्याग दिया है और जब तक लक्ष्य- सिद्धि न हो जाय, योग के गुह्य साधना-मार्ग से विरत न होने का दृढ़ व्रत लिया है। यद्यपि सम्प्रदाय के औघड़ों का उतना आदर नहीं है, जितना कनफटे योगियों का, फिर भी जब तक उनमें त्याग की भावना है, जबतक वे गुरु के निर्देशों पर दृढ़ हैं और आदर्श की अनुभूति में अपने जीवन को अर्पण किये रहते हैं, तब तक योग की गुह्य साधना में उन्हें किसी प्रकार की रोक नहीं है। औघड़ तथा दर्शनी योगी ऊन का पवित्र ‘जनेव’ (उपवीत) पहनते हैं। इसी में एक छल्ला जिसे ‘पवित्री’ कहते हैं, लगा रहता है। छल्ले में एक नादी लगी रहती है जो ‘नाद’ कहलाती है और इसी के साथ रुद्राक्ष की मनिया भी रहती है। ‘नाद’ उस सतत एवं रहस्यात्मक ध्वनि का प्रतीक है, जिसे प्रणव (ऊँ) की अनाहत ध्वनि कहते हैं, जो परमतत्त्व (ब्रह्म) का ध्वन्यात्मक प्रतीक है तथा पिण्ड और ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।

रुद्राक्ष (शिव या रुद्र की आँख) तत्त्वदर्शन (ज्ञान) या ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति से मानव-चेतना के प्रकाशित होने का प्रतीक है। योग-पद्धति के अनुसार स्वभावतः हृदय स्थित नाद की बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में प्रत्येक श्वांस के साथ प्रणव की पुनरुक्ति, ये दोनों ही ब्रह्म की साक्षात् चेतना को प्रकाशमान करने के उपाय हैं। यह ‘नाद-योग’ है और प्रतीकों के द्वारा इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यज्ञोपवीत नाड़ी मण्डल का प्रतीक है, जिसे नादयोग के अभ्यास से प्रशान्त और नियमित करना होता है। इस प्रकार योगियों के द्वारा धारण किये जाने वाले सभी बाह्य उपकरण, जिस सत्य की उन्हें अनुभूति करनी है, जिस आदर्श तक उन्हें पहुँचना है और जिस अनुशासन एवं विधि का उन्हें पालन करना है, उसकी स्मृति को सतत सजीव करने के लिए हैं। नाथ पंथ में अभिवादन की एक अलौकिक प्रथा है। सामान्य जन से अभिवादन के समय इस पंथ के लोग प्रचलित अभिवादनों का प्रयोग करते हैं। परन्तु आपस में अभिवादन के लिए ‘आदेश’ शब्द का घोष किया जाता है। अपने से वरिष्ठ को अभिवादन करते समय ‘आदेश महाराज जी’ कहा जाता है। प्रति उत्तर में वरिष्ठ द्वारा आदेश-आदेश बोला जाता है।

गोरख-पंथ के उपसम्प्रदाय
गोरखनाथजी का योगी सम्प्रदाय कई उपपंथों में विभाजित है। इनमें से प्रत्येक या तो गोरखनाथ जी के निकटतम शिष्य या उनके प्रमुख अनुयायी द्वारा प्रवर्तित हैं। इस सभी उपपंथों की सामूहिक संख्या 12 मानी जाती है। इसलिये इन्हें ‘बारह पन्थी’ कहते हैं (अर्थात वह सम्प्रदाय जिसमें 12 उपपंथ हैं)। जिस प्रकार शंकराचार्य के अनुयायी संन्यासियों की 10 शाखाएँ हैं, उसी प्रकार गोरखपंथी योगियों की 12 शाखाएँ हैं। ये सभी शाखाएँ साधना-प्रणाली एवं दार्शनिक मत दोनों में साम्य रखती हैं और सभी गोरखनाथ जी के प्रति श्रद्धालु हैं। उनमें कुछ छोटी-मोटी भिन्नताएँ हैं। अनेक उपलब्ध तालिकाओं के आधार पर इन उपपंथों की वास्तविक संख्या 12 से अधिक हो जाती है। इससे इस बात की पूरी सम्भावना की जा सकती है कि मूल शाखाएँ आगे चलकर कुछ प्रधान गुरुओं के द्वारा पुनः विभाजित कर दी गयी हैं। सम्प्रदाय के प्रमुख उपपंथ निम्नलिखित हैं-

  1. सतनाथी, 2. रामनाथी, 3. धर्मनाथी, 4. लक्ष्मननाथी, 5. दरियानाथी, 6. गंगानाथी, 7. बैरागीपंथी, 8.रावलपंथी या नागनाथी, 9. जालन्धरनाथी, 10. आई पंथी या ओपन्थी, 11. कापलती या कपिल पंथी, 12. धज्जा नाथी या महावीर पंथी। ये विभिन्न पंथ भारतवर्ष के विभिन्न भागों में अपना प्रमुख केन्द्र रखते हैं किन्तु ये सभी देशव्यापी पंथ एक संगठन से सम्बद्ध हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा केन्द्रीय संगठन की तरह कार्य करती है। इस केन्द्रीय संगठन की स्थापना ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ महाराज जी द्वारा की गयी थी। उनके बाद ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया रहे। वर्तमान में गोरक्षपीठाधीश्वर महंत आदित्यनाथ जी महाराज इस केन्द्रीय संगठन के मुखिया हैं। विभिन्न पंथों के मुखिया या उनके प्रतिनिधि महंत आदित्यनाथ जी महाराज के मार्गदर्शन में मंदिर, मठों या पूजा स्थलों का संचालन करते हैं। अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा भारतवर्ष में धर्माचार्यो का सबसे बड़ा संगठन है।

वृहत् साहित्य
नाथ-पंथी योगियों का साहित्य विशाल है- संस्कृत में भी और विभिन्न प्रान्तीय बोलियों और भाषाओं में भी। योग-साधना तथा सिद्धान्त को लेकर लिखे गये प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त, जिन्हें योगी लोग पूर्णतः प्रामाणिक मानते हैं, स्वयं गोरखनाथ, ऐसी अनेक रचनाओं के प्रणेता बताये जाते हैं, जो योग-साधना के पथ पर चलने वालों के लिये अमूल्य हैं। सम्प्रदाय के परवर्ती शिक्षकों ने भी प्रचुर साहित्य-सृजन किया है। ‘गोरक्ष-शतक’, गोरख-संहिता, सिद्धान्त-पद्धति, योग-सिद्धान्त पद्धति, सिद्धसिद्धान्त-पद्धति, हठयोग, ज्ञानामृत आदि अनेक संस्कृत-ग्रन्थ गोरखनाथ जी कृत बताये जाते हैं। हठ-योग प्रदीपिका, शिव-संहिता, और घेरण्ड-संहिता योग-साधन सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं और इनके रचयिता इसी सम्प्रदाय के योगी बताये जाते हैं। ‘गोरक्षगीता’, ‘गोरक्षकौमुदी’, ‘गोरक्ष-सहस्रनाम’, ‘योग-संग्रह’, ‘योग-मंजरी’, ‘योग-मार्तण्ड’ तथा इसी प्रकार की अन्य अनेक कृतियाँ गोरखनाथ के शिक्षा-सिद्धान्तों पर आधृत हैं। इनके साथ ही हिन्दी, बंगाली, मराठी तथा अन्य भाषाओं में इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध अनेक पुस्तकें हैं।

नाथ सिद्ध कौन थे?
‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द ‘‘नाथ’’ एवं ‘‘सिद्ध’’ जैसे दो शब्दों के संयोग से बना है और यह एक विशिष्ट धार्मिक वर्गवाले लोगों के लिये प्रयुक्त है। इसके अंग बन गये उक्त दोनों में प्रथम अर्थात ‘‘नाथ’’ कदाचित् अधिक पुराना कहला सकता है, क्योंकि इसके कुछ प्रयोग वैदिक साहित्य तक में मिलते हैं। ‘‘ऋग्वेद’’ के एक प्रसिद्ध सूक्त के अंतर्गत यह ‘‘समर्थ’’ वा ‘‘सक्षम’ के अर्थ में प्रयुक्त जान पड़ता है, परन्तु ‘‘अथर्ववेद’’ के एक स्थल पर इसका प्रयोग वस्तुतः ‘‘आश्रय ग्रहण करने योग्य स्थान’’ के लिए किया गया प्रतीत होता है तथा वहीं अन्यत्र इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘रक्षक’’ के अर्थ में भी प्रयुक्त समझा जा सकता है। इसी प्रकार बौद्धों के प्रसिद्ध मान्य ग्रन्थ ‘‘धम्मपद’’ के अन्तर्गत भी, हम इसे ‘‘स्वामी’’ अथवा ‘‘मालिक’’ वाले अर्थ में व्यवहृत होता देखते हैं। इसके सिवाय, जैन धर्म वाले दिगम्बर संप्रदाय के साहित्य में भगवान महावीर के कुल का नाम तक ‘‘नाथवंश’’ के रूप में दिया गया पाया जाता है।

‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द उन लोगों का बोध कराता है, जिन्होंने न केवल परमात्मतत्त्व का अपनी साधना द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया हो, प्रत्युत जो इस प्रकार पूर्ण सफल बन कर उसके तद्रूप तक भी हो चुके हों और जो दूसरों के लिए आदर्श कहे जा सकते हों।

‘‘नाथ सिद्ध’’ शब्द का एक पर्याय-वाची शब्द ‘‘नाथ योगी’’ भी है, जिसमें जुड़े हुए ‘‘योगी’’ को भी तत्त्वतः ‘‘सिद्ध’’ से अधिक भिन्न नहीं कहा जा सकता। इन दोनों में से किसका प्रयोग, सर्वप्रथम किया गया होगा तथा ये कब से प्रयुक्त होते आये हैं, इस बात का निर्णय करने के लिए यथेष्ट साधन उपलब्ध नहीं हैं। इस सम्बन्ध में, अभी तक केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ये कदाचित् बहुत पुराने नहीं ठहराये जा सकते। हो सकता है कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ का प्रयोग पहले पहल बौद्ध धर्मावलम्बी सहजयानी या वज्रयानी सिद्धों से भिन्नता दिखलाने के ही लिए किया गया हो तथा नाथपंथियों के मूलतः योगी भी होने के कारण, अधिकतर ‘‘नाथ योगी’’ शब्द का ही व्यवहार स्वभावतः होता आ रहा हो। ‘‘इसमें संदेह नहीं कि ‘‘नाथ सिद्ध’’ के स्थान पर केवल ‘‘नाथ’’ शब्द का प्रयोग कहीं अधिक प्रचलित रहता आया है और तदनुसार ही, नाथों के मत को ‘‘नाथमत’’ और उसके अनुयायियों को ‘‘नाथपंथी’’ कहने की परम्परा है।