गुरु गाथा

गुरु गोरख नाथ जी

अब गोरक्ष पद पर विचार किया जाना समीचीन होगा। विचार के लियेे व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवचन तथा व्यवहार को दृष्टिगत रखना होगा।

वेदज्ञ पूज्य श्रीअनिरूद्धाचार्य
वेंकटाचार्यजी महाराज ने ’गो’ पद के निर्वचन, व्युत्पत्ति और अनेक अर्थों का रहस्ययुक्त प्रतिपादन वेद की कठ, मैत्रायणी शाखाओं और वेद की ताण्ड्यय, जैमिनीय, शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों की श्रुतियों के सन्दर्भ से किया है। सामवेद के ताण्ड्यय ब्राह्मण में ’गो’ शब्द का निर्वचन ’गोवय तिरोभावे’ धातु से इस श्रुति में निम्नानुसार है

’’गवा वै देवा असुरान् एभ्यो लोकेभ्योऽनुदन्त।
यद्वै तद्देवा असुरान् एभ्यो लोकेभ्यो ’गोवयन’ तद्गोर्गोत्वम्।

अर्थात देवों ने ’गवा’ – गो-प्रण एवं गो-प्राणी इन दोनों से किंवा तीनो लोकों से असुरों को भगा दिया। अर्थात असुरों का विनाश ’गो’ का गोत्व है। ’गो’ शब्द के इस निर्वचन के रहस्य का आंकलन श्रुति में निर्दिष्ट देव, असुर और ’गो’ के स्वरूप के वास्तविक ज्ञान के बिना कठिन है। अतः इन तीनों के स्वरूप का संक्षिप्त निरूपण प्रस्तुत है।

वेद में ’प्राणा वाव देवताः’ श्रुति के आधार से ऋषि, पितर, देव, असुर, गन्धर्व, मनुष्य और पशु भेद से सात प्रकार के प्राणों को देवता कहा गया है। इनके पीत, शुक्ल एवं कृष्ण आदि भिन्न-भिन्न रंग हैं। इनमें शुक्ल प्राण देव एवं कृष्ण प्राण असुर हैं। देवों का आवास सूर्यमण्डल है। असुरों का आवास पृथ्वी-मण्डल है। देवों की संख्या तैंतीस और असुरों की संख्या निन्यानवे है। सूर्य की एक-एक शुक्ल रश्मि में सभी देव और पृथ्वी की छाया की प्रत्येक कृष्ण रश्मि में असुर निवास करते हैं।

इन उभय देव एवं असुरों से विश्व के सभी उच्चावच पदार्थों का निर्माण होता है। निर्माण के समय स्व-स्व जागरण एवं परस्वाप के लिये देवासुर युद्ध होता है। जिस पदार्थ में देवों की विजय अर्थात जागरण और असुरों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ देवमय होता है। जिस पदार्थ में असुरों की विजय अर्थात जागृति और देवों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ असुरमय हो जाता है। निष्कर्ष यह कि विश्व के सकल पदार्थों में देवता देव भाव का और असुर असुरभावों का संचार करते हैं।

देव तथा असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण अनुसार ’सत्यं श्रीज्र्योतिरमृतं सुराः’ अर्थात सत्य, श्री, ज्योति, और अमृत देव तथा ’असत्यं पाप्मा तमो मृत्युरसुराः’ अर्थात असत्य, पाप्मा, तम और मृत्यु असुर भाव हैं। देवमय पदार्थों के उपयोग से हमारे अध्यात्म, शरीर, मन, बुद्धि, प्राण एवं आत्मा में देव भावों का और असुरमय पदार्थों के उपयोग से असुर भावों का संचार होगा। इसीलिये शास्त्रों में खाद्य-अखाद्य, पेय-अपेय और गम्य-अगम्य आदि व्यवस्थाएं दी गयी हैं।

देव व असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण के पश्चात ’गो’ पद के निरूपण करते हैं। ’ऐतरेय’ ब्राह्मण की श्रुति ’’आदित्या वा गावः’’ यह प्रमाणित करती है कि तम नामक असुर भाव की विनाशिनी शक्ति जो सूर्य में है वह ’गो’ है। ’शतपथ’ ब्राह्मण में ’गम्लृ गतौ’ धातु से ’गो’ का निरूपण इस प्रकार किया गया है- ’’इमे वै लोका गौः! यद्धि किंचन गच्छति इमांल्लोकान् गच्छति।’’  इस आधार पर ’गच्छति इति गौः’, ’गम्यते इति गौः’ तथा अथर्ववेद की ’पिप्पलाद’ शाखा के अनुसार ’अथ गोर्वै सार्पराज्ञी’ अर्थात ’गो’ का अर्थ गतिमान अथवा गतिशील होना है। विस्तृत अर्थ में देखें तो ब्रह्माण्ड़ सहित समस्त गतिशील पदार्थों की संज्ञा ’गो’ है। इस अर्थ में ’अथ इयं पृथिवी वै सार्पराज्ञी’ अर्थात यह पृथ्वी भी गतीशील पदार्थों की रानी है। पृथ्वी की गतिशीलता का वर्णन प्रख्यात खगोलविद् विद्वान श्री आर्यभट्ट ने ’आर्यभट्टी’ ग्रंथ में इस प्रकार किया है-

’’अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।।’’

अर्थात गतिशील नौका में बैठा हुआ और सीधा जाता हुआ व्यक्ति तटस्थ अचल स्थिर वृक्ष आदि वस्तुओं को पीछे जाता हुआ देखता है, वैसे ही गतिशील पृथ्वी पर बैठा हुआ व्यक्ति तारामण्डल को पश्चिम में जाता हुआ देखता है। पृथ्वी गतिशील है अतः ’गो’ पदवाची है। न्यायदर्शन में तरंग-वीचि-न्याय से ’वाक्’ की गतिशीलता का वर्णन किया गया है, ’अथ वाग्वै सार्पराज्ञी’ अर्थात ’वाक्’ भी गतिशीलों में रानी है।

’गच्छति इति गौः’ इस निर्वचन से ’गो’ शब्द के अनेक अर्थ तिलक आदि कोश में दिये गये हैं, वे सभी अर्थ गतिशील होने से ’गो’ कहलाते हैें। इस प्रकार शब्दकोष के सन्दर्भ में वज्र, जल, बैल, गाय,  दिशा, सुख, स्पर्श, सत्य, चन्द्र, स्वर्ग, बाण, पशु, वाणी, नेत्र, किरण, पृथ्वी, जल, सूर्य, यज्ञ, सुरभि आदि ’गो’ पद के वाच्य हैं।

’गो’ पद के निरूपण के पश्चात ’गोरक्ष’ पद की विवेचना करेें तो व्याकरण के दृष्टिकोण से योगी प्रवर नेपाल राजगुरू श्री नरहरिनाथ के अनुसार ’गां रक्ष्तीति गोरक्षः’, ’रक्ष्तीति रक्षः’, ’गवां रक्ष गोरक्षः’, यावद्- अर्थात् ’गो’ पदवाच्य की जो रक्षा करता हो उसे ’गोरक्ष’ कहते हैं। इस प्रकार ’गो’ पद के जितने भी अर्थ हैं उन अर्थों की रक्षा करने वाले का नाम गोरक्ष है। उपर्युक्त संज्ञा वाले संज्ञियों के रक्षाकर्ता का नाम गोरक्ष है। उपमिति के करण को उपमान कहते हैं। उपमान उपमिति का असाधारण कारण है जिसका भावार्थ संज्ञा संबन्धी ज्ञान है। यथार्थ और सत्यवक्ता का नाम आप्तवचन है। इहलौकिक और पारलौकिक भेद से आप्तवचन दो प्रकार के प्रसिद्ध हैं। दर्शन, पुराण, इतिहास आदि इहलौकिक आप्तवचन के उदाहरण हैं जबकि वेद का मन्त्र भाग, ब्राह्मण आदि पारलौकिक आप्तवचन हैें।

इस प्रकार अनेक विद्वद्जनों ने ’गोरक्ष’ पद के अर्थ की मीमांसा की है। उन सभी पर गहन दृष्टि डाली जावे तो वे अनेक स्थानों पर एक दूसरे से सहमत होते हुए गोरक्षनाथ के मौन इतिहास की गवेषणा करते हुए प्रतीत होते हैं। इस अर्थ और दृष्टिकोण से ’गोरक्ष’ की संज्ञा किसी देहधारी मानव के लिये असत्य प्रतीत होती है। सत्य क्या है? यह कह पाना आज भी संभव नहीं है। किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि इतिहास जिस विषय में मौन हो उसका उत्तर जनश्रुतियों, किंवदन्तियों और दन्तकथाओं रूपी अलिखित साहित्य से ही संभव है। यदि यह माना जावे कि लिखित इतिहास केवल प्रत्यक्ष में घटित घटनाओं का ही संकलन है तो इतिहास की आधुनिक विधा में गोरक्षनाथ का कोई उल्लेख नहीं होना उनके जन्म और काल को प्रत्यक्ष रूप में घटित नहीं होना सिद्ध करता है।

फिर गोरक्षनाथ की वास्तविकता क्या है? क्या गोरक्षनाथ केवल एक विचार है? क्या गोरक्षनाथ शरीर और मनोविज्ञान की एक परम्परा है? क्या गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की कदली के स्त्री राज्य से विजय की कथा का मनुष्य के शारीरिक रचना और आध्यात्मिकता से कोई संबन्ध है? नाथपंथ में जिस प्रकार गूढ़ अर्थों वाली सांकेतिक पदावलियों का प्रयोग किया जाता है- उसी प्रकार क्या गोरक्षनाथ और नाथपंथ के अन्य सिद्ध आदि केवल एक विचार और आध्यात्मिक संकेत हैं?

मूल कथा अनुसार योगी मत्स्येन्द्र नाथ कामरूप देश के कामाख्या प्रदेश में महारानी मैनाकिनी (मंगला) और सौलह सौ अन्य रानियों के साथ योग साधना में तान्त्रिक कौलाचार प्रयोग कर रहे थे। (याद रहे कि चोरी से योग विद्या को प्राप्त करने के कारण मत्स्येन्द्रनाथ को शिव द्वारा एक समय योग विद्या भूल कर पथभ्रष्ट होने और लंका विजय के लियेे समुद्र पर सेतु बनाते समय रानी मैनाकिनी को बारह वर्ष तक योगी मत्स्येन्द्रनाथ का सान्निध्य प्राप्त करने का वरदान दिया गया था)। इस स्त्री राज्य में किसी पुरूष विषेषतः योगी संन्यासी का प्रवेश निषिद्ध था। अपने दिये हुए वरदान की रक्षा के लियेे स्वयं हनुमान इस नगर की रक्षा कर रहे थे। उधर अपने गुरू को इस स्त्री राज्य से मुक्त कराने के लियेे गोरक्षनाथ के अग्रसर होने के दो कारण थे। प्रथमतः वे योग साधना में कौलाचार की वामपंथी विकृति को दूर कर अपने गुरू को योग के मूल पंथ में वापस लाना चाहते थे और द्वीतीयतः जालन्धरनाथजी के शिष्य कान्हिपा के साथ हुए एक छोटे से वाद विवाद के कारण गोरक्षनाथ के लियेे यह आवश्यक हो गया था कि वे मत्स्येन्द्रनाथ को उस स्त्री राज्य से मुक्त करावें। उल्लेखनीय है कि मत्स्येन्द्रनाथ का स्त्री राज्य में कौलाचार साधना और जालन्धरनाथ का गौड बंगाल में मैनावती के पुत्र गोपीचन्द्र को बारह वर्ष पष्चात् नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित कराने का वचन एक ही समय की घटनाएं हैं। गोपीचन्द्र को नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित करने से रोकने के लियेे सभासदों और रानियों के कहने पर साधनारत जालन्धरनाथ को गोपीचन्द्र ने एक कुएं में फिकवा कर ऊपर से मिट्टी व घोड़े की लीद आदि डलवा दी थी। वाद विवाद में गोरक्षनाथ ने कान्हिपा को उनके गुरू (जालन्धरनाथ) के अपमान का उलाहना दिया तो कान्हिपा ने भी मत्स्येन्द्रनाथ के पथभ्रष्ट होने और नाथ सम्प्रदाय की बदनामी का उलाहना दिया था।

विचारणीय प्रश्न यह भी है कि गोरक्षनाथ जैसे महामानव और महाचरित्र के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ पर स्त्री मोह के इतने अधिक प्रभाव की किंवदंती के पीछे क्या कोई अन्य संकेत भी छिपा हुआ है?

नाथ सम्प्रदाय का आधार पुरुष मत्स्येन्द्रनाथ स्वयं की इतनी उच्च अवस्था को त्यागकर स्त्री मोह में इतना अधिक रत हो जाये, यह आसानी से स्वीकार्य नहीं हो सकता। नवनाथ भक्तिसागर, नाथलीलामृत और सिद्ध चरित्र नामक कतिपय नाथ ग्रन्थों में इस घटना का उदात्तीकरण करने का प्रयास दिखाई देता है। जो ऐसा प्रतीत होता है कि नाथपंथ के कुछ विद्वानों द्वारा अपने सम्प्रदाय के आदिपुरुष का दोष छिपाने का प्रयास किया गया हो।

बहरहाल, इन सभी और ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर तो समुद्र मंथन की भांति एक महान शोध के पष्चात् भी कदाचित् संभव न हो सके किन्तु गोरक्षनाथ द्वारा अपने गुरुदेव मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देश के स्त्री राज्य से मुक्त कराने की प्रमुख आख्यायिका पर महाराष्ट्र की केतकी महेश मोडक ने गोरक्षनाथ मन्दिर गोरक्षपुर से वर्ष 1998 में प्रकाशित योगवाणी के अंक चार में योगात्मक रूप से बहुत ही तार्किक प्रकाश डाला है। यद्यपि उनके द्वारा प्रस्तुत रूपक किसी किसी स्थान पर पदों के प्रतीकात्मक रूप, विषय से सामंजस्य नहीं बैठा पाते तथापि उनकी प्रस्तुति निश्चय ही इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने पर विवष करती है।

इससे पूर्व वर्ष 1992 में नेपाल राजगुरु योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज द्वारा जयपुर के झालाणा ग्राम में वर्तमान थाना मालवीया नगर व केलगिरी आई हाॅस्पीटल के मध्य स्थित प्राचीन षिवमन्दिर में कोटि होम यज्ञ सम्पन्न करवाते समय रात्रि में उनकी चरण सेवा के प्रसाद स्वरूप दिये जाने वाले प्रवचनों में एक दिन इसी प्रकार के वचनामृत का रसपान करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। किन्तु उस समय मेरे अन्तर्मन पर उनकी सुविधा, सेवासुश्रूषा और कोटिहोम यज्ञ का निर्विघ्न पूर्ण होने का विचार अधिक हावी होने से उनके द्वारा कहे हुए वृत्तान्त को अपने स्मृति पटल पर नहीं रख सका। किन्तु वर्ष 1994 में अपने विभागीय कार्य से अपने साथी कर्मचारी उपनिरीक्षक भंवर सिंह गौड़ के साथ उदयपुर प्रवास के दौरान ऐसा ही आख्यान उदयपुर के आयस योगी प्रवर मगन मोहननाथजी महाराज ने मेरे द्वारा योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज के वचनामृत के सन्दर्भ में जिज्ञासा करने पर बताया था। वस्तुतः तब से ही मेरे मन में इस कथा में आये पदों का कोई अन्य अर्थ होने की धारणा घर कर गयी थी।

जैसा कि ’गोरक्ष’ पद पर विचार करते समय हमने पाया कि गोरक्ष पद में ’गो’ के अनेक अर्थों में इन्द्रिय भी एक है और ’रक्ष’ से रक्षा करने वाला अभिहित है। इस आधार पर मानव शरीर में इन्द्रियों की रक्षा करने वाला अन्तर्मन ’गोरक्ष’ पद का अर्थ हो सकता है- इस विचार के प्रकाश में अन्य बातों पर विचार किया जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ संबन्धी इस आख्यायिका में एक महान आध्यात्मिक सत्य का प्रस्फुटन होता प्रतीत होता है।

मानव देह रूपी देश्स में दक्षिण अर्थात् नीचे की ओर जो मुलाधार चक्र नामक स्त्री राज्य है जिसकी रानी पद्मिनी (मूलाधार स्थिात अधोमुखी अष्टदलीय कमल) नामक सद्वासना है। वहां और उसके आस-पास के क्षेत्र में नित्य निरन्तर वासनाओं रूपी स्त्रियों का कोहराम मचा रहता है। इस स्त्री राज्य में मारुती के वुभूकार से ही अपत्य की प्राप्ति होती है और पुरुष संतति वहां जीवित नहीं रहती। इसका अर्थ है कि मारुती (हनुमान, जिन्हें नाथ सम्प्रदाय के ध्वज पंथ का प्रवर्तक माना जाता है- का एक नाम जो आत्मतत्त्व का वाचक है और वासनाओं से निर्लिप्त व निसंग है) अर्थात् श्वास-निःश्वास से उत्पन्न होने वाले विचार, कल्पना तथा वासना आदि में से अपने समानधर्मी कामनाओं को इस क्षेत्र में स्थान प्राप्त हो जाता है। जबकि वासनाओं के अतिरिक्त आत्मविषयक उच्च विचारों का वहां प्रवेश नहीं होता। उल्लेखनीय है कि यहां कामना और वासना स्त्री और आत्म विषयक उच्च विचार पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूल आख्यायिका अनुसार रानी पद्मिनी को एक दिन ऊपर आकाश से गमन करता हुआ मारुती दिखाई देता है ओर उसके मन में मारुती के प्रति काम भावना जागृत होती है।

योग ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि जब सद्वासना ऊध्र्वमुखी हो जाती है तब क्षणमात्र के लियेे ही सही किन्तु उसे आत्मा के सामर्थ्यशाली रूप का दर्शन हो जाता है और यह निश्चय ही इतना आकर्षक होता है कि किसी भी अच्छी चीज के दिखने पर खुद के लियेे उसकी मांग करने वाली प्रकृति से विवश वासना उसे प्राप्त करने के लियेे उत्कण्ठित हो जाती है। किन्तु आत्मतत्त्व निश्चल और निर्लेप होने के कारण वासना का उद्देश्य पूरा नहीं करता किन्तु आत्मा का पुत्र जीव चंचल इन्द्रियों वाला होने के कारण वासनाओं से संबंधित हो जाता है। यह जीव ही मत्स्य के समान चंचल इन्द्रियों वाला अर्थात् मत्स्येन्द्रनाथ है। वासनाओं से संबंधित हो जाने पर मत्स्येन्द्र नामक जीव की शनैः शनैः अपने मूल आत्मस्वरूप से विस्मृति होती रहती है। इस मत्स्येन्द्र नामक जीव को कभी कभी इन्द्रियों की रक्षा (गोः- इन्द्रीय, रक्षः- रक्षक अर्थात् गोरक्ष) की याद आती है तो तत्क्षण के लियेे वह उसी प्रकार चौंक उठता है जैसे सुख उपभोग की गहरी नींद से कोई क्षणमात्र के लियेे कोई चेतावनी सुनकर जाग पडे किन्तु आंख खुलने पर स्वयं को सुरक्षित पाकर पुनः निद्रालीन हो जावे। आनन्दभोग में मस्त हुआ मत्स्येन्द्र इसी प्रकार संयम को अस्वीकार करने लगता है और वासनाओें के जाल में उलझा रहता है।

प्रश्न यह है कि वासना आसक्त हुए मत्स्येन्द्र नामक जीव को मायाजाल रूपी इस स्त्री राज्य से मुक्ति कौन दिलवायेगा?

विकल्परहित उत्तर है इन्द्रियनिग्रही विचार अर्थात् गोरक्षनाथ। इसीलियेे वासना आसक्त जीव (मत्स्येन्द्र) को इन्द्रियनिग्रही विचार (गोरक्ष) बारम्बार सजग करने का प्रयास करता है। पुनः, चूंकि इन्द्रिय संयम का यह विचार आत्मतत्त्व रूपी पुरुष संतति का प्रतिनिधि है जिसका प्रवेश वासना क्षेत्र में निषिद्ध है, अतः यह सूचना प्रकट रूप से नहीं दी जाकर अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है। संकट, व्यवधान, दुःख, कठिनाई और यदा-कदा पुनः प्राप्त होने वाली स्मृति के समय जीव यह सूचना प्राप्त कर लेता है। गोरक्षनाथ स्वयं अपने रूप में मत्स्येन्द्रनाथ के समक्ष उपस्थित नहीं होते। वासना को उत्प्रेरित और पूर्ति में सहायक वातावरण रूपी स्त्री वेश ही गोरक्षनाथ का वह अप्रत्यक्ष रूप है।

अन्त में गोरक्षनाथ द्वारा मृदंग के माध्यम से मत्स्येन्द्रनाथ को ’’जाग मच्छन्दर गोरख आया’’ का अनुभव करवाना इस आख्यायिका का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है। तत्त्ववेत्ताओं में यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि देहरूपी मृदंग में ’सोऽहं’ का अनहद नाद नित्य और अनवरत रूप से ध्वनित होता रहता है। वासना में आसक्त रहने से जीव उसे क्षीण ध्वनि से सुनता रहता है किन्तु यही ध्वनि जब इन्द्रिय निग्रह के माध्यम से सुनी जाती है तब इसका भान तीव्रता से होता है। इस अनहद नाद को सुनकर जीव अपने आत्मस्वरूप का अनुभव कर जब वासनाओं के जाल से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करता है तब ही ’गोरक्ष विजय’ होती है।

जो भी हो, एक अन्तहीन विषय पर चर्चा अथवा वाद-विवाद भी किसी निष्कर्ष को प्रकट नहीं कर सकता। गोरक्षनाथ केवल एक विचार है अथवा देहधारी मानव?, वर्तमान का सत्य यह है कि महायोगी गोरक्षनाथ की जयंती मनाने के लियेे उत्कण्ठित राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत के नाथ योगी काफी अर्से से उनके प्रादुर्भाव की तिथि जानने के लियेे प्रयासरत थे। हिंगुवा मठ के तत्कालीन महन्त योगी प्रवर श्री हजारीनाथजी महाराज की प्रेरणा से योगी मानसिंह तंवर ने अपने सहयोगियों सहित सभी संभव प्रयास किये और अन्ततः नेपाल राजगुरू योगी प्रवर श्री नरहरिनाथजी महाराज की कृपा और सहयोग से नेपाल दरबार लायब्रेरी के एक ग्रन्थ में निम्नांकित पंक्तियां मिली।

वैशाखी-शिव-पूर्णिमा-तिथिषरेवारे शिव मङ्गले।
लोकानुग्रह-विग्रहः शिवगुरुर्गोरक्षनाथोऽभवत्।।

ऊपरोक्त पंक्तियों से यह सिद्ध होता है कि महायोगी गोरक्षनाथ का प्रकटीकरण वैशाख मास की पूर्णिमा को हुआ था। यह प्रकटीकरण भूमण्डल और काल के किस खण्ड में हुआ था? इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट व सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी। यद्यपि यह विश्वास किया जाता है कि योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नेपाल में अवलोकितेश्वर रूप में अवतरित होने से बारह वर्ष पूर्व गोरक्षनाथ का प्राकट्य हुआ था। अब योेगी मत्स्येन्द्रनाथ का समय निर्धारित करें तो नेपाल के एक शिलालेख के अनुसार अवलोकितेश्वर के अवतार का अनुमान कलियुग के बीत चुके समय में से 3600 घटाने पर जितना शेष बचता है वह समय अवलोकितेश्वर के अवतार (अथवा नेपाल आगमन) का है।

नेपाल धरा का शिलालेख

अतीत कलि वर्षेषु, शून्य द्वन्द्व रसाग्निशु।
नेपाले जयति श्रीमानार्यावलोकितेश्वरः।।

इस आधार पर गणना करें तो पौराणिक भारतीय काल गणना आंकडों के ऐसे अन्तरिक्ष में ले जाती है जो वैज्ञानिक व सटीक होते हुए भी अपनी विलक्षण सूक्ष्मता और विशालता के कारण कपोल कल्पित और अविश्वसनीय लगती है।

हम मानवों की विवशता ही है कि हमने किसी भी विषय की बहुत सूक्ष्म और उसकी विशाल ईकाई का शैक्षणिक ज्ञान तो प्राप्त कर लिया और उसकी कल्पना भी कर ली किन्तु उसे पूरी तरह जानने और मापने का यन्त्र अब तक तो विकसित नहीं कर सके। हमारे अब तक के विकसित यन्त्र और हमारी इन्द्रियों की षक्ति केवल इनके मध्य को ही देख व समझ सकती है। फिर भी भारतीय पौराणिक व आध्यात्मिक ग्रन्थ काल मापने की इन इकाईयों का जो अनुमान देते हैं, उसके अनुसार बढ़ते क्रम से हम मनुष्यो के समय की सबसे सूक्ष्म इकाई

  1. परमाणु,
  2. दो परमाणुओं का एक अणु,
  3. तीन अणुओं का एक त्रसरेणु,
  4. तीन त्रसरेणुओं की एक त्रुटि,
  5. सौ त्रुटियों का एक वेध,
  6. तीन वेधों का एक लव,
  7. तीन लवों का एक निमेष,
  8. तीन निमेष का एक क्षण,
  9. पांच क्षणों की एक काष्ठा,
  10. पन्द्रह काष्ठाओं का एक लघु,
  11. पन्द्रह लघुओं की एक नाड़िका (),
  12. छः नाड़िकाओं का एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे),
  13. आठ प्रहर का एक अहोरात्र (लगभग 24 घण्टे) ,
  14. पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष (पखवाडा) ,
  15. दो पक्षों का एक मास,
  16. छः मास का एक अयन,
  17. दो अयनों का एक वर्ष और

इस प्रकार दशाब्द, शताब्दी, सहस्त्राब्द व युग है।

देवताओं के समय का परिमाण मनुष्यों के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। इस प्रकार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र, मनुष्यों के तीस वर्ष देवताओं का एक महीना, मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष देवताओं का एक दिव्य वर्ष और मनुष्यों के चारों युग (अर्थात सतयुग के सत्रह लाख अट्ठाईस हजार, त्रेता के बारह लाख छियानवे हजार, द्वापर के आठ लाख चैसठ हजार और कलियुग के चार लाख बत्तीस हजार इस प्रकार कुल तैतालीस लाख बीस हजार वर्ष) बीतने पर देवताओं का एक दिव्य युग व्यतीत होता है। इसी प्रकार ब्रह्मा के समय का परिमाण देवताओं के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। साधारण षब्दों में कहें तो ब्रह्मा के एक दिन में चारों युग एक-एकश्हजार बार व्यतीत हो जाते हैं। इसी एक दिन में 14 मनु व 14 इन्द्र बदल जाते हैं और हम मानवों के चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष समाप्त हो जाते हैं। ब्रह्मा के इस दिन को ’कल्प’ या ’सर्ग’ कहा जाता है और इतने ही समय की रात होती है जिसे ’प्रलय’ कहते है। इतने बड़े दिन रात वाले सौ वर्ष धारण करके ब्रह्मा का निधन हो जाता है। गणना मंे त्रुटि नहीं हुई हो तो ब्रह्मा के ये सौ वर्ष पृथ्वी के 31,10,00,04,00,00,000 वर्षों के बराबर होते हैं। षास्त्रज्ञों की मानें तो ब्रह्मा के सौ वर्षों अर्थात 31,10,00,04,00,00,00,000 वर्षों के बराबर विष्णु का एक दिन होता है और ब्रह्मा की 72 बार मृत्यु हो जाने के पष्चात विष्णु का निधन हो जाता है। इसी प्रकार विष्णु के सौ वर्ष पूर्ण होने पर षिव का एक दिन और विष्णु की 72 बार मृत्यू हो जाने पर शिव का भी निधन हो जाता है।     

स्पष्ट है कि विष्णु के एक दिन को लिखने के लिये हमें 17 अंको की आवष्यकता हुयी है तो मानवों के चतुर्युगों और देवताओं के दिव्ययुगों की भांति ब्रह्मयुगों, विष्णुयुुगों और षिवयुगों की फलित संख्या जानने के लिये गणितज्ञों का आश्रय लेना होगा। काल गणना के इस भंवर में उल्लेखनीय तथ्य यह है समय व्यतीत होने के दृष्टिकोण से देवताओं के लिये तो अभी सतयुग ही चल रहा है, और ब्रह्मा की आयू केवल आधी व्यतीत हुई है। सम्भवतः ब्रह्मा के लिये सतयुग अभी षैषव अवस्था में, विष्णु के लिये भ्रूण अवस्था में और शिव के लिये तो सतयुग अभी जन्म की प्रक्रिया में ही है।

उपरोक्त विवेचन में हमने देखा कि समय की सूक्ष्मतम ईकाई ’परमाणू’ को मापने में हम अब तक सक्षम नहीं हो सके हैं और इसकी विशालता के सन्दर्भ में हम मानवों का ज्ञान तो बीस से पच्चीस शताब्दि तक ही सीमित है और उसमें भी अनेक विसंगतियां है। संवत्सर, युग, मनवन्तर कल्प, महाकल्प और दिव्ययुग पदों वाले कालखण्डों में से हम साधारण मनुष्यों को केवल संवत्सर व शताब्दियों की घटनाओं का ही ज्ञान है।    

आलोचना और अविश्वास की दृष्टि से देखें तो कह सकते हैं कि नाथपंथ के किसी अनुयायी ने काल्पनिक आधार पर इस श्लोक की रचना कर दी होगी। कुछ भी हो जब तक कोई अन्य प्रमाण नहीं मिल जाता वैषाख पूर्णिमा गोरक्षनाथ प्रकटोत्सव ओहहहहहह क्षमा कीजिये जयंती के रूप में स्वीकार करनी ही होगी।

लेकिन लोग जयंति मनाने पर तुले हैं। काश कि लोग अवतारवाद को जान पाते। अवतार की अवधारणा और अविनाशी की धारणा में अंतर कर पाते। ये विषय मैं बाद में लेना चाह रहा था लेकिन आपने विवश कर दिया कि एक हल्की सी चर्चा करता चलूं।
अवतार क्या है। देवताओं या महामानवों को जन्म की मैथुनिक प्रक्रिया से इतर दर्शाना ही अवतारवाद है। अवतारधारी की सीमा ये है कि वे किसी कालखंड़ के किसी अंश मात्र तक उपस्थित रहते हैं और अवतार काल में धारण किये गये स्वरूप में दुबारा उपस्थित नहीं हो सकते। कच्छ, मच्छ, वराह, अर्द्ध मानव अर्द्ध पशु से राम—कृष्ण स्वरूप में पूर्ण मानव के रूप में अवतरित होने वाले देवताओं में ये सामर्थ्य नहीं कि एक क्षण के लिये भी वे अवतार लिये जा चुके रूप में फिर से कहीं प्रकट हो सकें। उन देवताओं की सीमा ये भी है कि वे अपने निर्धारित युग में अवतार ले सकते हैं जैसे श्रीराम केवल त्रेता में तो श्रीकृष्ण केवल द्वापर में।

ये संभव है केवल उस अविनाशी तत्व में जो घट घट का वाशी है और वो आप जानते हैं ना कौन है जी हां वो केवल गोरक्ष है जो बार बार उसी स्वरूप में प्रकट होने में समर्थ हैं जो युग युग में उनकी उपस्थिति से सिद्ध है।

तो …. गोरक्ष का जन्म नहीं होता, गोरक्ष का अवतार भी नहीं होता उसका केवल प्रकटीकरण होता है केवल प्रकटीकरण। वे हमेंशा बारह वर्ष के बाल रूप में ही होते हैं।..सौजन्य एवं साभार… आदरणीय हुकम सिंह जी योगी जयपुर रिटायर्ड अति. पुलिस अधीक्षक राज. पुलिस

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